ए सुबह-ए-बनारस!!!
तुझसे मिली तो यूँ लगा
जैसे मेरी हर सुबह
अब तक बेमानी सी थी…
तुझसे पहले उठ कर
तुझ तक जाना और तुझे जीना,
मंत्रमुग्ध कर देने वाला एहसास था।
शीतल सी बहती ठंडी बयार
पावन गंगा की अविरल लहरें
श्लोकों के स्पष्ट उच्चारण
हवा में घुली धूप की खुशबू
गंगा आरती का अविस्मरणीय दृश्य
पूरे विश्व की शांति समेटे वो घाट
मानो मुझे वहीं रोक लिया हो
बांध लिया हो अपने मोहपाश में
और मेरी हर भोर एक दिशा दे दी हो……
अंधेरे के दूर होने का प्रत्यक्ष प्रमाण,
नई सुबह को गले से लगाने,
जैसे खड़ी हो उषा काल;
उगते सूर्य का स्वागत करती
बेला वो प्रातःकाल…
और मैं नौका विचरण करती,
दृश्य वो सुंदर, मनोरम
अपनी आंखों में भरती
उस पल को जी भर जीती
और अपने जीवन को देती
एक संदेश, कुछ उपदेश
जो सिखा गयी थी मुझे वो भोर….
जैसे जी रहीं हों, शिव जटा से
उद्गमित होती माँ गंगे!
अपनी ही पूजा के दो चार क्षण
और कह रही हो हर स्त्री से…
इन्हीं के सहारे पी लूंगी में
अपनी दिन भर की मलिनता
और अपमान,
मुझमें ही धोता है अपने पाप,
मुझे ही मलिन कर ,ये इंसान……….
———अनीता