उम्रक़ैद -एक घायल पैंथर की कहानी

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[avatar user=”rkszoovet” size=”98″ align=”left”]Dr. Rakesh Kumar Singh[/avatar]

“आप सही कह रहे हैं, ऐसा लगता है इसके पेट को चारों ओर से किसी ने कसके दबा रखा है। पेट के कुछ अंदरूनी अंग भी दिख रहे हैं”। मेरे साथी चिकित्सक ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया। ट्रक से उतर रहे पिंजरे में मादा पैंथर को देखते ही हम हैरान थे। उसकी दाईं आंख बुरी तरह क्षतिग्रस्त थी, पेट के कुछ अंग बाहर झांक रहे थे, जगह-जगह चोट के निशान औऱ ऊपर से ख़तरनाक स्तर तक गिरा हुआ डिहाइड्रेशन ओर एनीमिया।
एक रात पहले सूचना प्राप्त होते ही मैं औऱ हमारी टीम अविलम्ब इंडो-नेपाल बॉर्डर पर एक पैंथर रेस्क्यू के लिए निकल पड़े थे। रातों रात उसे रेस्क्यू कर वापसी की लगभग 400 किलोमीटर की यात्रा कर हम सुबह-सुबह ही उसे लेकर वापस भी लौट आये थे। रात के अंधेरे में बियाबान जंगल या हाइवे पर उसे बस प्राथमिक उपचार ही दिया जा सकता था। लिहाजा हमारी टीम रात भर वापसी की यात्रा में चलती रही। हमारा उद्देश्य था कि जल्दी से जल्दी चिकित्सालय पहुंच कर इलाज प्रारंभ किया जा सके।
युवा पैंथर रास्ते में और अब चिकित्सालय में भी असामान्य रूप से लगातार चिल्ला रही थी, वह किसी भी दशा में दूसरे पिंजरे में जाने को तैयार नहीं थी। काफी मशक्कत के बाद उसे किसी प्रकार दूसरे पिंजरे में ले जाया जा सका। उसका पेट किसी चीज से बुरी तरह दबा हुआ था। ध्यान से देखने पर सचमुच उसके पेट को एक लोहे के तार ने बुरी तरह जकड़ रखा था। यही कारण था कि वह असहनीय पीढ़ा से आक्रामक हो रही थी। तार ने उसके अंदरूनी अंगों तक को क्षतिग्रस्त कर दया था, और वे बाहर तक निकल आये थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तार में फंसने के बाद पैंथर अपने आपको तार की जकड़ से मुक्त कराने के लिए जितना जोर लगाती रही होगी उतना ही वह तार उसके पेट को कसता चला गया होगा।
फिलहाल, मादा पैंथर को खतरनाक स्तर तक अंदरूनी चोटें आई थीं। ऐसे में न ही उसे सकुइज़र केज (एक पिंजरा जिसमें पैंथर, टाइगर और शेर आदि को सावधानी से कस देने से उनका उपचार किया जा सकता है) में कसा जा सकता था औऱ ना ही किसी ड्रग से ट्रांक्विलाईज़ (एक प्रकार की बेहोशी की प्रक्रिया) किया जा सकता था। बड़ी मेहनत व सावधानी से किसी तरह हम सब उस तार को खोलने में कामयाब हुए। तार निकलते ही उसकी दहाड़ ने सबको स्तब्ध कर दिया। लेकिन तार का कसाव कम होते ही रक्त की क्षतिग्रस्त धमनियों से रक्त का श्राव प्रारम्भ हो गया। हम सभी चिकित्सकों की टीम ने किसी प्रकार रक्त श्राव को तो रोक लिया। लेकिन इतनी बुरी तरह घायल पैंथर को देख कर एक चिकित्सक होने के नाते हम नाउम्मीद तो नहीं थे परंतु उम्मीद की रोशनी भी कहीं नहीं दिख रही थी। उसपर उसकी बुरी तरह क्षतिग्रस्त आंख देखकर ही स्वयम को पीढ़ा उठ जाती थी।
सबसे मुश्किल था उसे गोश्त खिलाना। कई दिन बीतने पर भी वह एक टुकड़ा खाने को तैयार ना थी। इसके अतिरिक्त जब भी उपचार या गोश्त डालने के लिए उसके पास जाओ तो वह पिंजरे से टकरा कर अपने आप को घायल अलग से कर लेती थी। हमें विश्वास था कि वह गुस्से के कारण नहीं खा रही है और यदि किसी तरह ताज़े गोश्त को वह मुंह में पकड़ ले तो काम बन सकता था। उसे गोश्त खिलाने के लिए हमारी टीम ने उसके इसी गुस्सैल स्वभाव का सहारा लिया। हम लोग उसके लिए पिंजरे में डाले गोश्त को एक लंबे डंडे से अपनी ओर खींचने लगे, इसका परिणाम यह हुआ कि गुस्से से भरी पैंथर ने गोश्त के टुकड़े को अपने मुंह में दबा लिया। दो दिन में यह प्रक्रिया रंग लाई और तीसरे दिन उसने खाना प्रारम्भ कर दिया।
यद्यपि कई महीने के उपचार से मादा पैंथर के घाव भरने लगे थे लेकिन वह दिन प्रतिदिन औऱ आक्रामक होती जा रही थी। हमारे पूर्व के अनुभव के विपरीत वह अधिक आक्रामक हो जा रही थी। मगर यह कहीं से उसका दोष नहीं था। वन्यजीव का इस कदर मनुष्य के प्रति आक्रामक व नफरत से भरा होने का कारण कहीं न कहीं पूर्व में उसका मानव से हुआ टकराव ही होता है। मानव वन्यजीव संघर्ष के पश्चात या तो वन्यजीव अधिक आक्रामक हो जाते हैं अथवा वे मनुष्य को देखते ही छुप जाते हैं। परंतु दोनों ही स्थिति में कहीं न कहीं मनुष्य के प्रति यह नफरत की पराकाष्ठा का ही प्रदर्शन होता है।
हालांकि मादा पैंथर अब स्वस्थ अवश्य है उसकी दूसरी आंख की रोशनी भी काफी हद तक वापस आ गई है। परंतु मनुष्य को देखते ही उसका आक्रामक होकर गुस्से का इज़हार करना, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से इनके आशियाने में मानव दख़ल का ही परिणाम है। मादा पैंथर अब ज़िन्दगी भर किसी ‘प्राणिउद्यान’ अथवा ‘वाइल्डलाइफ रेस्क्यू सेंटर’ पर सलाखों के पीछे उम्रक़ैद की ज़िन्दगी जीने को मजबूर है। क्योंकि उस बेजुबान के पास न कोई सबूत था, न गवाह था और न ही कोई क़ानूनी दांव पेंच। उसे उस गुनाह की सज़ा मिली जिससे उसका कभी वास्ता ही नहीं रहा। आखिर कब तक ये बेगुनाह उस गुनाह की सजा भुगतते रहेंगे जो उन्होंने किया ही नहीं। लेकिन हाँ, वह गुनहगार थी- क्योंकि वह बेजुबान थी……………………….…………….
डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ एवम साहित्यकार

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