शहर के बाद..
टूटती रेखाओं पर
रह जाएंगे
यह शब्द शरणार्थी,
महक के स्वप्न सारे
जैसे फूल धरें हों अर्थी पर.
देखता हूं निरंतर
विफलताओं की धारा पर
विरासत का सूखा कूप
और बंजर जमीन
गांव
कि भूख से बिलखता हुआ शिशु
मेरी और ताकता आशान्वित
मैंने बचा रखा था तुम्हें,
अंतर्मन के तट पर
बिखरी माला के मोतियों सा
मैं स्वयं में किस तरह,
किस तरह, कहाँ
मुझमें
शहर के बाद
तुम.?
=> मौसम राजपूत