कुदरत का इशारा

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कुदरत का इशारा समझो,
कुछ कहने की कोशिश करती है|
तुम नासमझ तो नही, समझो उसकी जुबानी ,
शायद फिर से अपनी छटा बिखेरने की कोशिश करती है|
तुम-हमने मिलकर बिगाड़ा संतुलन इस प्रकृति का,
शायद अपने दिए ज़ख्म भरने की कोशिश करती है|

फिर से दिखने लगे दूर-दूर के पर्वत,
शायद कुछ सिखलाने की कोशिश करती है|
निज स्वार्थ में न जाने कितने घाव दिये,
इसलिए फिर से कुछ हिदायत देने की कोशिश करती है|
सुनो ध्यान से उसकी कहानी,
बिन ज़ुबॉ सब कहने की कोशिश करती है|
हो मानव तुम तो,समझो उसकी करुणा को,
फिर से मुस्कुराने की कोशिश करती है|

  • सुकर्णा कटियार

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