मित्रता की इतिश्री

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सभ्य कहलाए जाने की होड़ में हम अपनों से बहुत दूर होते जा रहे हैं। अपने वह जो हमारे सुख दुख में भागी रहे हैं या भागी होने का दावा करते हों। यह अपने, हमारे माता पिता, भाई-बहन, व्यवसाय-सहयोगी तथा मित्र भी हो सकते हैं। अक्सर ऐसे ही किसी के अपनों से सुनने को मिलता है, अमुक के घर जाकर एट-ईज़ या स्वतंत्र महसूस नहीं करते। वहाँ बैठना बड़ा भारू लगता है। जबकि अमुक से अनन्य प्रेम है और अन्तरंगता का सम्बन्ध है। फिर भी वहाँ जाकर ऐसा क्यों होता है, नहीं मालूम है।
लोग अपने अन्य इष्ट मित्रों से इस प्रकार की चर्चा करते मिल जाते हैं। श्रोता, यदि भुक्तभोगी है तो विषय गंभीर विश्लेषण का मुद्दा बन जाता है अन्यथा उसे सुना-अनसुना कर दिया जाता है लेकिन भुक्तभोगी मित्र के मन का एहसास उसे विचलित रखता है। तभी तो इस अनमनेपन के चलते या तो मित्रता समाप्त हो जाती है अथवा मित्रवत प्रेम में कुछ दूरी हो जाती है।
मनोवैज्ञानिक या समाजशास्त्री मानवीय संबंधों के इस क्षरण को किस रूप में आँकेंगे, नहीं मालूम, किन्तु यह अवश्य है कि वह सहज भाव से मित्र प्रेम में उभरती इस विकृति के लिए आपसी समझदारी को ही दोषी ठहरायेंगे।
एक बात तो निश्चित रूप से कही जा सकती है कि कभी भी किन्हीं दो व्यक्तियों की, भले ही वह पति पत्नी ही क्यों न हों, जीवन शैली एक दूसरे के समरूप नहीं होती। दोनों ही पक्षों के समक्ष एडजस्टमेंट या आपसी समायोजन की असीम संभावनाएँ होती हैं। इसी समायोजन के फलस्वरूप परस्पर संबंधों में घनिष्ठता और स्थायित्व उत्पन्न होता है।
इसके अतिरिक्त दो लोगों के अंतःमन के विचारों और द्वंदों को किसी विशेष समय पर या प्रत्येक समय समझ पाना दोनों पक्षों के लिए एक दुष्कर कार्य होता है। किसी भी एक पक्ष का यह दावा कि वह दूसरे पक्ष को भली प्रकार समझता है, सच्चाई पटल पर खरा नहीं उतर सकता। व्यक्ति के अति काम्प्लेक्स या पेचीदा तथा पल-पल बदलते स्वभाव व भावनाओं को समझ सकना आसान नहीं हुआ करता।
कौन पक्ष कब और किस प्रकार की मनःस्थिति में जी रहा है, इसका अंदाज या अनुमान उसके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं लगा सकता। ऐसी स्थिति में आगंतुक अपने मित्र के स्वभाव का आंकलन करने में चूक कर सकता है। किंतु यदि आगंतुक को यह अनुभव प्रत्येक भेंट वार्ता के दौरान होता है, तो निश्चित रूप से या तो वह अपने मित्र को समझने में भूल कर रहा है या फिर वह अपने ही किसी मनोविकार का शिकार हो रहा है या हो गया है।
यदि गंभीर विश्लेषण के पश्चात आगंतुक मित्र अपने मनोभावों में कोई विकार नहीं ढूँढ पाता है तो यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि उसका मित्र वैसा नहीं है जैसा कि वह दिखता है। उसकी सहजता और सहृदयता पर सभ्यता का भारी भरकम किन्तु आकर्षक आवरण पड़ा है, जिससे उसका वास्तविक स्वभाव अपने अभिन्न मित्रों के लिए भी पहेली बनकर रह गया है।
इस स्थिति में वांछनीय है या तो प्रभावित पक्ष अपने मित्र से स्थिति स्पष्ट कर लें। किन्हीं कारणों से यह संभव न हो तो मित्रवत संबंधों में कुछ दूरियाँ स्वीकार कर लें। समय रहते इन प्रयासों को अमली जामा न पहना पाने पर मित्रता में धुन लग जाएगा और मानसिक दबावों के चलते एक न एक दिन मित्रता की इतिश्री हो ही जाएगी।

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