कोई नाम न दो….भाग-4

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राजबहादुर सिंह चुप हो गए। स्वयं बुलाने गए थे। अब वापस जाने का आदेश भी नहीं दे सकते थे और अपनी शंका को भी नहीं मिटा पा रहे थे। कवि अपनी कविता सुना रहे थे। लोग वाह-वाह करते नहीं थक रहे थे। एक के बाद एक और फिर दूसरे बारी-बारी से जा रहे थे और श्रोता प्रत्येक को सुनने के बाद जोर-जोर से तालियाँ बजा रहे थे।
एक-एक करके सभी जब अपनी कविता पाठ कर चुके तो अंत में राज बहादुर सिंह ने माइक अपने हाथ में लेकर औरों की भाँति अविनाश का परिचय देना प्रारंभ किया। “यह हमारे सौभाग्य का विषय है कि अपने ही नगर के एक उच्च कोटि के कवि श्री अविनाश बाबू ने हमारा अनुरोध स्वीकार करके, हमारे इस आयोजन में अपने गीत द्वारा जन-जन का मनोरंजन करना स्वीकार कर लिया है। अविनाश बाबू शहर के स्थानीय विद्यालय में अध्यापक हैं और बहुत उच्च कोटि के कवि भी। इन पर हमारे नगर को गर्व है। आश्चर्य की बात तो यह है कि हमें उनके संबंध में पता भी केवल दो दिन पूर्व चला है। खैर मैं आपका अधिक समय न लेकर अविनाश बाबू से अनुरोध करूँगा कि वह मंच पर आकर आपका स्वस्थ मनोरंजन करें। आइए अविनाश बाबू।”
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पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। सबकी निगाहें मंच पर अविनाश को तलाशने लगीं। एक अजीब-सी उत्सुकता थी सबके चेहरे पर। इतने में अविनाश धीरे-धीरे चलता हुआ माइक के पास आकर शांत खड़ा हो गया। सफेद कुर्ते-पैजामे में खिलता हुआ गेहुँआ रंग, बिखरे हुए केश और एकाग्रचित्ता का संदेश देती हुई अनंत में खोई हुई अपलक आँखें….एक बार यह रूप देखकर….फिर पंडाल तालियों से गूँज उठा।
अविनाश निश्छल खड़ा रहा। तालियाँ बजती रहीं।
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रात्रि के दो बज रहे थे। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था वह क्या पढ़े। पल भर की खामोशी के बाद पंडाल में खुसफुसाहट फैल गई। लोगों की आँखें उसे विभिन्न परिवेशों में देख रही थीं। कोई सोचता कि भूल गया, कोई कहता नया है, कोई कहता नखरीला है, मगर कोई यह नहीं कह रहा था कि वापस भेजो। राज बहादुर सिंह भी चिंता में पड़ गए। मगर कहें तो क्या कहें। सभी उसको घूर रहे थे।
वह अभी भी खामोश खड़ा था। अचानक उसकी दृष्टि अर्चना पर पड़ी। वह कुर्सियों की पहली पंक्ति में बैठी मुस्कुरा रही थी। अविनाश ने उसे देखा और आँखें झुका लीं। आँखों के झुकते ही उसे लगा मानो उसकी सूरत से चिढ़ने वाले बोर होकर रो रहे हैं। उसने दृष्टि घुमा कर चारों ओर ऐसे श्रोताओं को भी खोजने का प्रयास किया मगर उसे आँखों में रोता कोई नहीं दिखा। एकाएक माँ की तस्वीर उसके सामने से गुजर गई। पल भर के लिए वह गंभीर हो गया और पुनः मंद मुस्कान बिखेरते हुए उसने अपनी कविता की पहली पंक्ति प्रारंभ की-
“मैं लिखूँ जब गीत कभी, तुम भूल से यह न सोच लेना
गीत है तेरे लिए
मैं तो लिखता हूँ ….भला आदत जो ठहरी।
“वाह-वाह-वाह-वाह, क्या कहा” मैं तो लिखता हूँ…. भला आदत जो ठहरी।”
श्रोताओं ने पंक्तियाँ दोहराईं। अविनाश पल भर को रुका। अर्चना गंभीर हो गई थी।
“यस कंटीन्यू प्लीज” श्रोताओं की बेताब आवाज़ अविनाश के कानों में पड़ी।
“प्रिय, मैं सजाऊँ गीत में….किसी स्वप्न को तो
सोच मत लेना कहीं कि तुम मेरी हो….”
“वाह….वाह।”
मैं तो सबको ही सजाता हूँ…भला….”
“आदत जो ठहरी” अंतिम शब्द अविनाश बोलता कि श्रोताओं ने स्वयं ही बोल दिए। तालियों की गड़गड़ाहट से पंडाल गूँज उठा। अविनाश आगे बढ़ा-
“आँख से कतरा कभी आँसू का कोई बह चले तो
सोचना मत गम छिपा….हृदय में कोई रो रहा है
मैं तो रोता हूँ यूँ ही दिन-रात…. भला आदत जो ठहरी….”
“एक्सीलेंट, बहुत बढ़िया, क्या जुबान है, क्या भाव है, वंडरफुल” जैसे शब्दों से पंडाल भर गया।
शांति होते ही अविनाश ने पुनः प्रारंभ किया-
“मैं हँसू तो….खुश कभी भी…
भूल से मुझको समझ न बैठना
क्या खुशी है…. क्या हँसी है… क्या पता….
मैं तो हँसता हूँ यूँ ही…. आदत जो ठहरी।”
“वाह… वाह….” क्या कहने भाई। कोई जवाब नहीं।
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दो मिनट तक पंडाल करतल ध्वनियों से गूँजता रहा। बहुत से लोग ‘वंस मोर’, ‘वंस मोर’ की आवाजें लगा रहे थे। किंतु प्रातः के तीन भी बज चुके थे। अतः संयोजक श्री राजबहादुर सिंह को मंच पर आकर समयाभाव के कारण क्षमा माँगनी पड़ी। साथ ही निर्णायक मंडल का फैसला भी उन्होंने गर्वित स्वर में सुना दिया।
“आदरणीय श्रोतागण, नगर बंधुओं हमें यह कहते हुए हर्ष हो रहा है कि इस बार पाँच हजार का नगद ईनाम सर्वश्रेष्ठ कवि- जो मूलतः हमारे नगर के ही वासी हैं…. श्री अविनाश जी को भेंट किया जाता है।”
पंडाल करतल ध्वनियों से गूँज उठा।
अविनाश मंच पर आया। सरसरी दृष्टि से उसने जनसमूह को निहारा। कृतज्ञतापूर्ण नेत्रों से, प्रेम से ओत-प्रोत लड़खड़ाती आवाज में, अविनाश ने इस निर्णय के लिए संयोजक मंडल और श्रोतागण को धन्यवाद दिया। मंच से जैसे ही उतर कर पीछे चलने को हुआ कि एक अच्छी खासी नवयुवकों और नवयुवतियों की भीड़ ने उसे घेर लिया। बड़ी मुश्किल से वह उन सबसे पीछा छुड़ाकर प्रातः चार बजे घर पहुँच सका।
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वैसे तो अविनाश ने अब तक अनेकों गोष्ठियों में भाग लिया था, अपने गीत सुनाए थे… वाह-वाही भी लूटी थी, किंतु कल जैसी गोष्ठी और कल जैसा नाम और सम्मान उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। उसके गीतों को सुनकर न मालूम कितने उसके चाहने वाले हो गए थे। मगर वह अपने में ही रमा था। कितनों ने उसकी करीबी का स्वप्न देखा किंतु वह तो सदा बेखबर ही रहा। लोग खुद-ब-खुद अपने को उसके बहुत करीब समझने लगते थे। वह फिर भी सबसे जुदा था। उसके लिए न कोई अपना था और न पराया। उसके हृदय में मानव मात्र के लिए प्यार था, मानवता के लिए श्रद्धा और प्रेम के लिए त्याग। यही उसके जीवन की अमूल्य निधि थी जो धरोहर के रूप में अथवा वसीयत के रूप में उसे अपनी माँ से मिली थी।
उसके शब्दों में जादू था। जिससे वह एक बार बोल देता वह हमेशा के लिए उसका हो जाता। कहते हैं सौम्य दिल की भाषा मनमोहक हुआ करती है। उसके हृदय में न तो द्वेष था, न राग और न ही छल या कपट। फिर भला कैसे नहीं उसकी भाषा, उसके शब्द हृदयग्राही होते।
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“दूध” प्रातः का पहला सूचक दूधवाला बाल्टी में नपना लड़खड़ाते हुए आ पहुँचा। वह ठीक छः बजे आ जाया करता था। आज भी उसी समय पर आया। मगर आवाज पर आवाज भी दरवाजा खोलने में कोई सहायता नहीं दे रही थी। उसने जोर से एक और आवाज दी।
“बाबू जी” और इंतजार में खड़ा हो गया कि नित्य की भाँति वह अपना बर्तन लेकर आएँगे, किंतु आशा के विपरीत दरवाजे बंद के बंद रहे। झुँझलाकर उसने दरवाजा भड़भड़ाया।
इस पर भी जब उसका ‘बाबू’ दूध लेने नहीं आया तो कुड़मुड़ाता हुआ बारामदे से लौटने लगा।
“क्या हुआ दूध वाले” बाग में पूजा के लिए फूल चुनते हुए अर्चना ने पूछा।
“बाबू पता नहीं, है कि नहीं….उठते ही नहीं हैं।”
“रात बहुत देर से सोए हैं। उन्हें मत जगाओ। तुम दो मिनट रुको, मैं उनका दूध लिए लेती हूँ।”
“हाँ बिटिया ले लो तो बड़ा भला हो, वरना हमका फिर आए का पड़ी।”
ताजे-ताजे फूल चुनकर अर्चना तेजी से पग रखते हुए भीतर चली गई। माँ जी नहा-धोकर पूजा पर बैठने को थीं।
“माँ, मास्टर साहब सो रहे हैं। उनका दूधवाला वापस लौटा जा रहा है।”
“तो ले लो ना। इसमें क्या पूछना?” पूजा के फूल लेते हुए माँ ने कहा।
“किस बर्तन में ले लूँ?”
“जिसमें तेरा जी आए।” कहते हुए माँ जी पूजा की कोठरी की तरफ चल दीं।
अर्चना ने एक साफ मंजा धुला बर्तन उठाया और बाहर आ गई।
“दूधवाले जब तुम्हारे बाबू दरवाजा न खोला करें तो उन्हें मत जगाया करो।” समझाते हुए अर्चना ने कहा।
“फिर क्या किया करूँ?”
“तुम उनका दूध हमें दे जाया करो, जब वह उठेंगे तो हम उन्हें दे दिया करेंगे।”
“आगे से ऐसा ही करूँगा” दूध नापते-नापते उसने जवाब दिया।
दूध लेकर अर्चना वापस अंदर आ गई और उसे गर्म करके जाली से ढक कर रख दिया।
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“अर्चना बेटी” मिसिर जी ने पुकारा।
“आई बाबा।”
“बेटी प्रातः का कितना सुंदर समय है। सभी ईश-वंदना में मग्न हैं। क्या पंछी, क्या वृक्ष, सभी निराकार प्रभु की उपासना में तल्लीन हैं। मेरा हृदय भी चाहता है कि तू कोई सुंदर-सा भजन सुना दे। आत्म-संतुष्टि हो जाएगी।”
“अच्छा बाबा” कहकर अर्चना अंदर चली गई और वापस हाथ में सितार लिए लौट आई।
“बाबा आज आपको सितार पर मीरा के पद सुनाऊँगी।”
“वाह बेटी, वाह, क्या सूझ है तेरी। सचमुच यह प्रातः का समय मीरा के भजनों के लिए ही है।”
मृगछाला पर मिसिर जी बैठ गए। ध्यानावस्था का सौम्य रूप बनकर।
अर्चना ने सितार के तार हिलाए। वातावरण एक सुमधुर झंकार से झंकृत हो उठा। सितार के दूसरे, तीसरे और चौथे तार पर धीरे-धीरे अर्चना की कलात्मक उंगलियाँ थिरकने लगीं। सितार की आवाज शांत वातावरण में गूँजने लगी। भजन आरंभ हो गया। समस्त वातावरण एक मनोहर और मनभावन ध्वनि में समा गया।
सितार की आवाज प्रातः काल की खामोशी को तोड़ते हुए चुपचाप धीरे-धीरे बगल वाले मकान तक पहुँची।
अविनाश ने करवट ली।
“सितार पर मृदु संगीत” आश्चर्य से बुदबुदाया।
“सपना होगा” स्वयं को उत्तर देकर फिर सो गया।
किंतु निरंतर कानों में पड़ती हृदयग्राही आवाज ने अविनाश को उठा दिया। वह भौंचक्का होकर अपनी आँख मलता, जम्हाई लेता खड़ा हुआ।
आवाज अभी तक आ रही थी।
“सपना नहीं वास्तविकता है” फुसफुसाते-फुसफुसाते बारामदे की खिड़की से बाहर झाँका।
अशोक वृक्ष के नीचे मृगछाला पर बैठे मिसिर जी ध्यान मग्न थे और अर्चना उनके सामने बैठी सितार लिए भजन गा रही थी।

अविनाश के कदम वहीं ठिठक गए। एकटक देखता ही रह गया। अर्चना के सुंदर, गोल गोरे मुखड़े पर प्रातः कालीन सूर्य की उज्ज्वल किरणें पड़ रही थीं। कपोलों की लालिमा किरणों के स्पर्श से शर्मा रही थी। माथे और ठोढ़ी पर बिखरे जल-बिन्दु उसकी तन्मयता के द्योतक, उसकी छवि को और अधिक आकर्षक बना रहे थे। श्वेत वस्त्रों में बाल खोले… सचमुच वह पावन मीरा का स्वरूप ही लगती थी।

अविनाश से नहीं रहा गया। धीरे से दरवाजा खोला और बारामदे के सामने लगे बड़े आम के वृक्ष के पत्तों से छन-छन कर आते प्रकाश की आड़ में खड़ा होकर सौम्य यौवन का खिलता हुआ कुसुम देखने लगा। विचारों में खो गया। एकाएक एक जोरदार आखिरी ध्वनि के साथ सितार बजना बंद हुआ। श्रद्धा पूर्वक अर्चना ने सितार को हाथ जोड़कर शीश नवाया और मिसिर जी की ओर देखने लगी। सितार के बंद होते ही मिसिर जी का भी ध्यान टूटा। मिसिर जी ने होंठों पर हल्की मुस्कान लाते हुए ऐसे सिर हिलाया मानो कह रहे हों वाह-वाह कितना खूबसूरत भजन है तुम्हारा।
अर्चना एक हाथ में सितार और दूसरे हाथ में मृगछाला का आसन लिए चल पड़ी। पीछे-पीछे मिसिर जी भी चल पड़े। जब वे दोनों घर के अंदर दाखिल हो गए तब अविनाश भी पेड़ों की ओट से च़ारदीवारी के भीतर आ गया और दरवाजा बंद करके नित्य प्रति के कार्यों में लग गया। फारिख होने पर जब वह बैठा तो उसे चाय के ख्याल में बेचैन-सा कर दिया। उठा, स्टोव जलाकर चाय का पानी चढ़ा दिया। चाय बनने को थी, लेकिन घर में दूध नहीं था।
“शायद दूध वाला नहीं आया” यह सोचकर वह बाहर गेट तक आ गया और दूध वाले की प्रतीक्षा करने लगा। अर्चना को समझते देर न लगी। नौकर के हाथ उसने दूध का बर्तन अविनाश को भिजवा दिया।
“बाबूजी” अविनाश ने पीछे मुड़कर देखा। अलगू दूध का भगौना लिए खड़ा था।
“किसने भिजवाया?”
“छोटी बीबी जी भिजवाइन हैं।”
“क्या दूधवाला वहाँ दूध दे गया था?”
“ई हमका नहीं मालूम।”
“अच्छा हमारी तरफ से बीबी जी को शुक्रिया बोलना” भगौना लेते हुए अविनाश ने कहा। अलगू जाने लगा। “सुनो” बीच में टोकते हुए अविनाश ने उसे रोका, “यह भगौना भी लिए जाओ।”
“अच्छा।”
अविनाश ने शीघ्र ही दूध अपने बर्तन में करके भगौना उसे दे दिया। अलगू चलने लगा। थोड़ी ही दूर गया होगा कि फिर कुछ याद आ गया और लौटकर आया- “बाबू जी, बीबी जी कहिन रहीं कि दुधवा औटावा भया है।”
“अच्छा।”
अलगू चला गया।
“कितने सज्जन लोग हैं” बुदबुदाते हुए अविनाश ने चाय उतारी और इत्मीनान से पीने बैठ गया। चाय खत्म करके नित्य की भाँति बारामदे में अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गया। आज विद्यालय में छुट्टी थी। बेफिक्री के साथ अविनाश बैठा-बैठा अपनी पुस्तक के पन्नों में खो गया। बीच-बीच में झपकी भी आती और पुस्तक के पृष्ठ अदल-बदल जाते। हवा का हल्का-सा झोंका उनको आगे-पीछे ले जाने के लिए काफी था। किंतु ज्यों ही उसकी आँख खुलती, वह पन्नों को पल भर तो देखता ही रह जाता और यह समझने का प्रयास करता कि आखिर उसने पढ़ा कहाँ तक है।
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एकांकी जीवन का एकांकी आनंद होता है। न चिल्ल न पुकार। दीन-दुखियों से दूर, अपनों से बेखबर इंसान प्रकृति के सौंदर्य में रम जाता है। चिड़ियों का कलरव, वृक्षों की झनझनाहट, पत्तों की खड़खड़ाहट, यही सब बस उसके जीवनसाथी और सुख-दु:ख के हमजोली बन जाते हैं। वैसे तो आने-जाने वाले दुनिया में तमाम लोग होते हैं किंतु कोई सच्चा संतोष नहीं देता। उनमें स्वार्थ और कटुता का समावेश होता है जिससे एकांकी मन कुछ ही देर में घबरा कर उनसे दूर भाग जाना चाहता है, किंतु दुनिया का दायरा विस्तृत होते हुए भी मन की उड़ान के लिए बहुत सीमित है। वह इधर-उधर उड़ने का प्रयत्न करता है मगर हर बार टकरा-टकरा कर फिर वापस लौट आता है और साथ ले आता है, गम भरा एक दर्दीला चिंतन।
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दिन के ग्यारह बजने को थे। प्रातः की कोमल धूप धीरे-धीरे पेड़ों में उतरकर बारामदे तक फैल रही थी। आधे से अधिक बारामदे में धूप ने अपना प्रसार कर लिया था। जिस आम्र वृक्ष की छाया के पीछे अविनाश कुर्सी डाले बैठा था वह भी उसकी रक्षा धूप से करने में असमर्थ-सा हो रहा था। सूर्य विपरीत दिशा में पहुँच चुका था और प्रतिपल अपनी तीखी किरणों के प्रकाश के साथ तेजी से आगे बढ़ने को उत्सुक था।
अविनाश कुर्सी पर सिर टिकाए सो रहा था। पुस्तक हाथ से छूटकर नीचे गिर गई थी। बेकार वस्तु समझकर एक-दो पंछी उस पर फुदकने लगे। फुदकते-फुदकते जब वे थक गए तो अन्यत्र कहीं चले गए और किसी पेड़ से उतर कर गिलहरी के छोटे बच्चे उस पर आकर बैठ गए और खेलने लगे। दरवाजा खुला देखकर सड़क का आवारा कुत्ता मेहमान बनकर बेतकुल्लफी के साथ अंदर घुस आया और मेज पर रखे हुए दूध के बर्तन में मुँह डालकर ऐसे पीने लगा मानो यह उसी के खातिर रखा गया था।
किंतु अविनाश बेखबर था। वह अभी तक सो रहा था। रात की थकान काफी थी, फिर फुरसत भी थी।
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“अविनाश बाबू” करीब आते हुए मिसिर जी ने पुकारा। अविनाश कुछ नहीं बोला। गहरी तंद्रा में था। शब्दों की और चप्पलों की आहट सुनकर कुत्ते के कान खड़े हो गए। वह बिना कुछ आगा-पीछा सोचे कमरे से तेजी से निकलकर भयभीत मन से भागा। हड़बड़ाहट में मिसिर जी समझ न सके कि भागने की आवाज किसकी थी। किंतु ज्यों ही तेजी से कुत्ता उनके बगल से निकला, वह चौंक पर एकदम किनारे हो गए और छड़ी उठाकर उसे मारने के लिए पीछे मुड़े, किंतु वह तो बहुत दूर भाग चुका था। बुजुर्ग और अनुभवी होने के कारण मिसिर जी को समझते देर नहीं लगी कि कुत्ता अवश्य ही कुछ अनिष्ट करके गया है।
“अरे भाई अविनाश बाबू कैसे बेखबर सो रहे हो। कम-से-कम दरवाजा तो बंद कर लिया करो।” कहते-कहते मिसिर जी दरवाजे के पास पहुँचे और झटके के साथ उसे जोर देकर बंद किया तो कुंडे में झूलती सांकल खनखना उठी। अविनाश की नींद टूट गई।
“अरे आप।”
“क्या करूँ। तुम्हें जगाता रहा, तुम उठे ही नहीं। हाँ, एक कुत्ता तेजी से निकलकर जब तुम्हारे कमरे से बाहर भागा तो मैंने सोचा लाओ दरवाजा तो बंद ही कर दूँ। तबीयत तो ठीक है न?”
“जी हाँ, आइए आप बैठिए। मैं देखता हूँ मियाँ कुत्ते ने क्या गजब किया है।”
अविनाश ने मिसिर जी से सांकल का छोर अपने हाथों में ले लिया। मिसिर जी इत्मीनान से सांकल छोड़कर बेंत की कुर्सी पर छड़ी रखकर बैठ गए।
कुछ देर बाद अविनाश अंदर से आया। उसके चेहरे पर संतोष की एक मधुर मुस्कान थी। आँखों में विनम्रता और क्षमा की एक हल्की-सी झलक।
“क्यों बेटा, कुछ नुकसान तो नहीं किया?” अविनाश को आता देखकर मिसिर जी ने पूछा।
“नहीं बस दूध पी लिया है। और लेगा ही क्या…?”
“नारायण… नारायण…. सबसे महँगी चीज तो पी ही गया। अरे आखिर तुम हिफाजत से क्यों नहीं रहते हो बेटा। आज तो कुत्ता घुस आया और कल को खुदा न करे यदि कोई और घुस आया तो क्या होगा?”
“बाबू जी यहाँ रखा ही क्या है?”
“बेटा कुछ हो या न हो। इस महंगाई के जमाने में तो एक सुई भी चार पैसे की मिलती है।”
“भविष्य में अवश्य सब हिफाजत से रखा करूँगा।” बड़े ही भोलेपन से अविनाश ने कहते-कहते गर्दन पीछे की ओर घुमा कर अपनी पुस्तक को देखना चाहा किंतु घने आम्र वृक्ष और झाड़ियों के मध्य होती हुई उसकी दृष्टि अनजाने में ही अर्चना पर पड़ गई। वह सिहर उठा। चोर मन से उसने झटपट मिसिर जी को देखा और सतर्क होकर बैठ गया। मिसिर जी आँखें मूँदे शायद कुछ सोच रहे थे।
“बाबूजी आप बैठिए। मैं चाय का प्रबंध करता हूँ।”
“नहीं रहने दो। मैं तो अभी-अभी चाय पीकर ही आया हूँ। तुम्हारा दरवाजा खुला देखा तो सोचा चलूँ देखूँ क्या कर रहे हो। न मालूम क्यों तुमसे इतना स्नेह हो गया है कि बिना तुमसे मिले मन बहुत अनमना-सा रहता है। इसीलिए वक्त बेवक्त तुम तक चला आता हूँ। लेकिन बेटा तुम्हारे कामों में कोई हर्ज तो नहीं होता है न?”
“बाबू जी आप ऐसा मत सोचा करें। जितना स्नेह आपने मुझे दिया है आज तक मुझे नहीं मिला। न जाने कौन से संस्कारों का परिणाम है बाबू जी कि मैं आपका स्नेह पात्र बन सका।”
“बेटा यही तो मायाजाल है जिसमें जिंदगी मकड़ी की भाँति कभी इधर तो कभी उधर झूलती रहती है, किंतु कभी किनारे नहीं लगती। मुझे तुमसे एकाएक स्नेह हो गया। मगर इस स्नेह का आदि और अंत क्या है…. किसी को नहीं मालूम।”
“जी हाँ बाबू जी सांसारिक दृष्टि इस संबंध को नहीं देख सकती।”
“अच्छा आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है दिन भर का।”
“कुछ भी नहीं। दो बजे विद्यालय जाना है। कुछ छात्रों को बुलाया है। डेढ़-दो घंटे पढ़ाने के बाद साढ़े चार बजे तक घर वापस आऊँगा और उसके बाद वही नृत्य का कार्यक्रम होगा। बस इतनी-सी है अपनी जिंदगानी।”
“बहुत सुंदर, किंतु बेटा क्या कभी-कभी तुम इस अकेलेपन से घबराते नहीं?”
“बाबू जी घबराहट का क्या काम? घबराहट तो वहाँ होती है जहाँ कोई बात जबरदस्ती सिर पर लादी गई हो। यहाँ तो सब कुछ स्वेच्छा से ही स्वीकार किया है।”
“आखिर बेटा तुम विवाह क्यों नहीं कर लेते? क्यों नहीं एक गृहस्थी जमा लेते?”
“बाबू जी यह तो यह बहुत गंभीर प्रश्न है। संभवतः मैं इस प्रश्न का उत्तर आज क्या कभी नहीं दे पाऊँगा, बस जो भी पूछेगा, उससे इतना अवश्य कह दूँगा कि मैं विवाह नहीं करूँगा।”
“किंतु न करने की कोई तो वजह होगी ही?”
“वजह ही तो मुझे खुद नहीं मालूम।”
“यह कैसे हो सकता है?”
“क्योंकि बाबू जी मुझे अब तक के जीवन में इतना स्नेह मिला है कि मैंने कभी अकेलापन महसूस ही नहीं किया और जब आदमी अकेला नहीं होता है तो कभी भी वह किसी भी वजह को ढूँढने के लिए प्रयत्नशील नहीं होता है। शायद यही कारण मेरे साथ भी हो जो मुझे मेरे अंतःकरण से वजह न पूछने दे रहा हो।”
“बेटा यह सब ठीक है, किंतु पारिवारिक स्नेह कुछ और ही होता है। उस स्नेह की तुलना इस स्नेह से नहीं की जा सकती। पारिवारिक स्नेह चिरस्थाई होता है और यह सब क्षणिक।”
अविनाश खामोश मिसिर जी की बातों को गौर से सुन रहा था। उसे उनकी बातों में यथार्थ नजर आ रहा था, फिर भी उस सत्य को जिसे उसके हृदय ने सैद्धांतिक रूप में स्वीकार कर लिया था, वह व्यवहारिक रूप में उसको तनिक भी स्वीकार करने को तैयार नहीं था। मिसिर जी बुजुर्ग थे, अनुभवी थे और उस पर स्नेह रखते थे। उनको सभी कुछ बताने और कहने का अधिकार था। अविनाश को श्रद्धा थी। इसलिए उसे सभी कुछ निर्विरोध सुनना ही था।
“अच्छा बेटा समय अधिक हो रहा है। अब चलूँ, फिर आऊँगा।”
“अरे बैठिए, अभी तो आप आए ही हैं” अविनाश ने सरल आग्रह किया।
“नहीं-नहीं फिर आऊँगा। अरे हाँ, बेटा याद है न तुमने मुझे एक वचन दिया था।”
“वचन?”
“भूल गए?”
“क्षमा कीजिएगा। मुझे याद नहीं आ रहा है। संभवतः अर्चना को पढ़ाने से तो संबंधित नहीं था मेरा वचन?”
“बेटा वह वचन नहीं, वह तो मेरा अधिकार था जो मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हें जब समय हो तो देख लेना। लेकिन वचन था मेरे साथ किसी दिन भोजन करने का।”
“ओह इसमें वचन की क्या बात। मुझे तो आपके साथ भोजन में आनंद ही रहेगा।”
“तो आज रात को आओ।”
“यदि कल पर रखा जाए तो आपको कोई असुविधा तो नहीं होगी?”
“नहीं-नहीं, इसमें सुविधा-असुविधा क्या। कल ही आ जाना।”
“जी अवश्य आऊँगा।”
मिसिर जी धीरे-धीरे छड़ी टेकते चल दिए। अविनाश उन्हें बारामदे में खड़ा तब तक देखता रहा जब तक वह दृष्टि से ओझल नहीं हो गए।
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