कोई नाम न दो….भाग-7

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अगले दिन पढ़ने-पढ़ाने का वह पुराना सिलसिला फिर शुरू हो गया था।
“सर एक बात कहूँ, आखिर इन लड़कियों को क्यों क्या हो गया है? हमसे पूछती हैं कि तुम्हारा ब्वॉयफ्रेंड क्या करता है। पहले तो मैं समझ नहीं पाई। जब उन्होंने आपका हुलिया बताया तो मैं बहुत हँसी।”
“क्यों हँसी?”
“अरे आप सर हैं कि ब्वॉयफ्रेंड?”
“उन्हें क्या मालूम कि मैं तुम्हारा सर हूँ।”
“फिर भी उम्र का एहसास तो होना ही चाहिए न।”
“क्यों क्या बड़ी उम्र का कोई अपने से छोटी लड़की का फ्रेंड नहीं हो सकता?”
“क्यों, ऐसा कैसे हो सकता है?”
“अच्छा तुम मुझसे जैसी बातें करती हो क्या कोई गुरु से ऐसी बातें करता होगा?”
“हाँ यह तो मैं भूल ही गई थी। तब सच है। यू आर माई फ्रेंड। ओ.के.।”
“ओ.के.।”
“और जानते हैं एक लड़की बहुत सीधी-सी है। किसी से बात नहीं करती। लड़कों की तरफ तो देखती भी नहीं है। जानते हैं लड़कियाँ क्या कहती है। कहती हैं यह अभागी है, इसका कोई ब्वॉयफ्रेंड नहीं है। कुछ लड़कियों ने उससे पूछा कि तुम ब्वॉयफ्रेंड क्यों नहीं बनाती तो जानते हैं क्या बोली?”
“क्या बोली?”
“मुझे लड़कों से डर लगता है। उनकी संगत ठीक नहीं। बड़े डिमांडिंग होते हैं।”
“तो ठीक तो कहा उसने। वही सबसे समझदार है अर्चू। उसे बुद्धू मत समझो।”
“सर हम तो किसी को कुछ नहीं समझते। सबकी सुनते हैं। हमने अभी यह भी नहीं बताया कि आप मेरे सर हैं या पड़ोसी है या ब्वॉयफ्रेंड।”
“तुम क्यों नहीं बता देती कि मैं तुम्हें ट्यूशन देता हूँ।”
“शी। क्या कहेंगे सब। इतनी बड़ी लड़की ट्यूशन पढ़ती है, अरे अगर वह यह समझ रहे हैं कि आप मेरे ब्वॉयफ्रेंड है तो ठीक ही है। कम-से-कम लफंगे तो मुझसे दोस्ती नहीं करने आएँगे।”
“क्या किसी ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया है?”
“एल्लो,किसी एक ने! अनेकों ने दोस्ती का पैगाम भेजा है। लेकिन हम हैं कि किसी को घास डालते ही नहीं।”
“तो आज की पढ़ाई खत्म।”
“जी सर। खतम। कल फिर आइएगा।”
अविनाश चला गया था।

कल फिर वही कहानी शुरू हो गई। अभी अविनाश कुर्सी पर बैठा ही था कि वह तपाक से बोल उठी, “जानते हैं सर आज क्या हुआ?”
“मुझे क्या मालूम क्या हुआ?”
“ओ फो सुनिए तो। कॉलेज में एक लड़का मेरे बगल से निकलकर बोला, ‘हाय अर्चना’ मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा कौन मर गया जो हाय-हाय लगा रखी है। तो जानते हैं क्या बोला?”
“क्या बोला?”
“हाउ स्वीट, मुझसे दोस्ती करोगी?”
“कभी नहीं”, मैंने टके-सा जवाब दिया। पास खड़ी एक सहेली ने मुझसे धीरे से पूछा, “अर्चू क्या कह रहा था रमेश?” मैंने कहा पूछ रहा था दोस्ती करोगी। तो जानते हैं वह क्या बोली? कहने लगी कि “अरे यार किस्मत वाली हो। इतने पैसे वाले घर का लड़का तुमसे दोस्ती करने को तरस रहा है। एक हम हैं जो उससे दोस्ती करना चाहते हैं, पर उसके नखरे ही नहीं मिलते।”
“तो उसकी दोस्ती करवा दो” अविनाश ने कहा।
“अरे बात तो खत्म होने दीजिए” वह यही चाहती थी। मुझसे बोली, “यार तू न कर, पर मेरी दोस्ती उससे करवा दे।” मैं तो चकरा गई। मैंने कहा कल बताऊँगी। आप बताइए सर मैं क्या करूँ। उससे कह दूँ कि वह उस लड़की से दोस्ती कर ले?”
“लेकिन यह कहने के लिए पहले तुम्हें उसकी दोस्ती स्वीकार करनी पड़ेगी।”
“हाँ और वह मैं करूँगी नहीं।”
“बस तो बात खत्म।”
“वैसे आप बताइए लड़कों से दोस्ती की जा सकती है?”
“क्यों नहीं? अगर दोस्ती में सामाजिक और नैतिक सीमाओं का ध्यान बना रहे।”
“हूँ।”
“हो गई पढ़ाई? यूँ ही यह वर्ष भी बीत जाएगा लेकिन तुम नहीं बदलोगी।”
“सर कोई खुद को बदलता नहीं, परिस्थितियाँ बदल देती हैं। तो आप मुझे बार-बार न बदल पाने का उलाहना क्यों देते रहते हैं?”
“अच्छा बाबा अब नहीं दूँगा बस।”
“ओ.के.।”

महाविद्यालय के अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों को सुनते और सुनाते तीन साल बीत गए। अर्चना बी.ए. में भी अव्वल रही लेकिन डॉक्टरी के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं में तीनों वर्ष वह असफल रही। अंत में मिसिर जी ने इस परीक्षा में बैठने से उसको मना कर दिया। अर्चना बहुत खुश हुई थी।
“सर देखा आपने मैं जीत गई।”
“तुम बहुत शैतान हो।”
“जी लेकिन बिना आपके कुछ भी नहीं हूँ।”
“अच्छा” दोनों हँस पड़े थे।
“सुनिए अब बारी एम.ए. करने की।”
“तो करो। मैंने कब मना किया है?”
“अजी सर किस विषय में करूँ? यह तो बताइए।”
“अंग्रेजी साहित्य।”
“हाँ यह तो मैं भूल ही गई थी।”
“लेकिन अंग्रेजी साहित्य मैं नहीं पढ़ा पाऊँगा। यह मेरा विषय नहीं था।”
“फिर वही बात सर। आपसे पढ़ाने को कौन कह रहा है। लेकिन आपको पढ़ाना तो होगा ही..।”
“अच्छा चलो। दो वर्ष और सही।”
“उसके बाद?”
“उसके बाद अपना-अपना भाग्य।”
“क्या मतलब?”
“अरे तुम कहीं, मैं कहीं।”
“ओह आपका मतलब शादी! शी। वह कौन करता है। मैं तो प्रोफेसर बनूँगी।”
“प्रोफेसर शादी नहीं करते क्या?”
“करते होंगे लेकिन प्रोफेसर अर्चना शादी-वादी नहीं करेगी।”
“चलो देखा जाएगा।”
“देख लीजिएगा सर।”
“और सुनो प्रोफेसर अर्चना इस बार दाखिला लेने तुम स्वयं जाना, मैं नहीं जाऊँगा।”
“क्यों?”
“क्योंकि पहले तो ब्वॉयफ्रेंड बन गया था। आपकी न जाने क्या बना दिया जाऊँ।”
अर्चना ठहाका लगाकर हँसने लगी। हँसी खत्म हुई तो बोली, “सर क्या बना देते आपको मेरा पति?” और हँसने लगी। फिर बोली, “शी। आप मेरे पति कैसे हो सकते हैं। मैं सोच भी नहीं सकती” और लगातार हँसती रही।
अविनाश उसे अपलक देख रहा था। “तुम शैतानी की सीमाएँ लाँघ रही हो।”
“सर एक आप ही तो हैं जिससे मैं अपना सब कुछ शेयर कर सकती हूँ। वरना घर में क्या है। बाबा को रामायण से फुर्सत नहीं, माँ को घर के काम नहीं छोड़ते, पापा सिर्फ रात में सोने आते हैं। दादी तो पुराण कथाओं को ही दोहराती रहती हैं। ऐसे में भला मैं क्या करूँ, किससे बात करूँ? किससे अपने भावों को शेयर करूँ?”
“अब समझा, मैं तुम्हारे मनोरंजन का साथी हूँ।”
“केवल मनोरंजन का ही नहीं, ज्ञान का साथी भी।”
“मेरी संगत से तुमने क्या सीखा?”
“जो सीखा वह बताया नहीं जा सकता” गंभीर होते हुए अर्चना ने कहा।
“तो जनाब आप सीखिए और मैं चला।”
“आपको तो हमेशा चलने की जल्दी पड़ी रहती है।”
“जब घर है तो वहाँ जाने की जल्दी रहेगी ही।”
“बड़ा घर है न आपका? कौन है वहाँ? चूहे, छिपकली, जाले, चिड़ियाँ, चिरगुने और ढेर सारे चींटे-चींटियाँ। अस्त-व्यस्त कमरा, इधर-उधर लोट लगाते किचन के बर्तन। इसके अलावा और क्या है वहाँ?”
“नहीं है तो हो जाएगा।”
“सर कब?”
“यह अनुत्तरित प्रश्न है।”
“उत्तर ढूँढ लीजिए।”
“हाँ, फिलहाल चलता हूँ। बकवासों के लिए अभी तमाम दिन पड़े हैं।”
“सर आप सोचते होंगे कि मैं पागल हूँ। क्या-क्या बका करती हूँ।”
“बड़ी देर में पहचानी हो खुद को।”
“नहीं पहचान तो बहुत पहले ही लिया था, केवल व्यक्त आज किया है।”
“बहुत खूब।”
और वह उठकर चला गया था।

एक सप्ताह बीत गया था, लेकिन न जाने क्यों अविनाश नित्य की भाँति शाम को अर्चना के घर नहीं गया। वह प्रतिदिन ठीक छः बजे मेज पर किताबें रख उसकी प्रतीक्षा करती और अंत में निराश होकर दूसरे कामों में लग जाती। कई बार सोचा कि अविनाश के घर जाए और उससे न आने का कारण पूछे, किंतु लोक-लाज के कारण वह ऐसा नहीं कर सकी। बाबा से भी वह यह नहीं कह सकी कि अविनाश के बारे में पता करें। न ही मिसिर जी ने अविनाश के न आने पर पहले की भाँति कोई आश्चर्य व्यक्त किया। लंबे समय के बाद एक दिन उसने देखा, अविनाश बारामदे में कुर्सी पर बैठे किसी पुस्तक में मग्न था। वह काफी समय तक बारामदे में खड़ी उसे देखती रही ताकि वह पलट कर देखें और वह कम-से-कम उसे मौन नमन तो कर सके। लेकिन उसने यह अवसर भी नहीं दिया। थोड़ी देर बैठा रहने के बाद वह उठकर सीधा कमरे में चला गया।
अर्चना भी भीतर आ गई। पढ़ना था नहीं, तो घर के कामों में माँ का हाथ बटाने लगी। माँ ने न तो उससे आगे की पढ़ाई के बारे में कुछ पूछा और न ही अविनाश के बारे में कोई जानकारी चाही। घर के बदले हुए माहौल में अर्चना का मन घुटने लगा था। आखिर जब उससे नहीं रहा गया तो वह बाबा के पास गई।
“बाबा मास्टर जी पढ़ाने नहीं आ रहे हैं।”
“अरे बेटी कब तक मास्टर साहब से पढ़ती रहोगी। अब सयानी हो गई हो, घर के काम-काज में मन लगाओ। कुछ ही समय में तुम्हारा घर बसेगा। पढ़ाई-लिखाई करते रहने से क्या होगा?”
“बाबा क्या अब मैं एम.ए. नहीं करूँ?”
“मेरा तो ख्याल यही है कि ज्यादा पढ़ाई कर लोगी तो शादी में कठिनाई तो होगी ही, शादी के बाद तुम्हें घर में सामंजस्य बना पाने में भी कठिनाई होगी।”
“बाबा अगर मैं डॉक्टरी पढ़ रही होती तो?”
“तो बात अलग थी। तुम्हारे पास एक निश्चित प्रोफेशन होता। किसी प्रोफेशनल से ही तुम्हारा ब्याह होता। लेकिन केवल एम.ए.या एम.एस.सी. करके क्या पाओगी?”
“तो क्या आपने यह निर्णय मास्टर साहब को बता दिया है?”
“हाँ बेटी।”
“लेकिन मैं तो पढूँगी। शादी-वादी नहीं करूँगी।”
“कैसी मूर्खतापूर्ण बातें करती हो। कब तक निरुद्देश पढ़ती रहोगी?”
“तब तक, जब तक कि आपका या मेरा उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता।”
“तुम्हारा क्या उद्देश्य है?”
“प्रोफेसर बनना।”
“बन पाओगी?”
“क्यों नहीं। मास्टर साहब का दिशा-निर्देश मिलता रहा तो अवश्य यह मंजिल भी पा सकूँगी।”
“अर्चू बच्चों वाली बातें मत करो। अपनी जिम्मेदारी और घर की मर्यादा का ध्यान रखकर ही कोई कदम उठाओ।”
“बाबा मैं तो कोई भी नया कदम उठाने नहीं जा रही हूँ। पुराने कदमों पर ही चलना चाह रही हूँ।”
“लेकिन वह कदम अब तुम्हारी उम्र के साथ परिवार की मर्यादा को शोभा नहीं देगा। उसे अब यहीं रोक देना होगा।”
“बाबा आज आप कैसी बातें कर रहे हैं? मास्टर साहब तो बहुत भले व्यक्ति हैं। उनके प्रति आप इतने कठोर क्यों हो गए हैं?”
“बेटी कठोर मैं नहीं समाज हो गया है। कल को यही समाज पूछेगा कि सयानी लड़की का एक पुरुष के साथ बैठकर अकेले पढ़ना कहाँ तक उचित है, मैं क्या जवाब दूँगा?”
“बाबा आपको मेरे या उनके चरित्र पर भरोसा नहीं है?”
“भरोसा क्यों नहीं है, लेकिन समाज में चर्चा के समक्ष भरोसा डगमगा जाता है। लगता है व्यक्ति की समझ से बड़ी समझ समाज की होती है क्योंकि उनमें दिमागों के झुंड काम करते हैं।”
“बाबा मेरा कैरियर चौपट हो जाएगा।”
“बेटी लड़की के लिए उसका सबसे बड़ा कैरियर है घर बसाना और उसे फलते-फूलते देखना।”
अर्चना कुछ नहीं बोली। लेकिन अविनाश के न आने का कारण उसकी समझ में आ गया था। उसे यकीन हो गया था कि अविनाश को आने से रोक दिया गया होगा। उसका मन विद्रोह कर उठा। वह सोचने लगी, अगर मास्टर साहब को घर आने से रोका गया तो वह खुद भी इन संकीर्ण दीवारों को छोड़कर उन्मुक्त प्रकृति में कहीं खो जाएगी।
उसके विद्रोही मन ने समझाया, “अर्चू तेरी भावनाएँ निष्कलंक हैं। फिर भी शक को तेरे व्यक्तित्व पर थोपा गया है। उसका प्रतिरोध कर। चल मास्टर जी के घर चल। जो होगा सो होगा। उस व्यक्ति ने तुझे कितना कुछ दिया है और तू जरा-सी मर्यादा के मायाजाल में फँस कर उसको धन्यवाद देने भी नहीं जाएगी।”
“मैं जाऊँगी, जरूर जाऊँगी। आज ही जाऊँगी। उनसे मिलूँगी। उनको सब कुछ बताऊँगी।” वह बुदबुदा उठी। पीछे खड़ी माँ ने पूछा, “बेटी किससे बात कर रही है?”
“मैं अब खुद से ही बात करने लायक रह गई हूँ।”
“क्या पागल हो गई है?”
“हो तो नहीं गई हूँ, लेकिन घर का यही हाल रहा तो एक न एक दिन पागल हो जरूर जाऊँगी।”
“बेटी ऐसी बातें नहीं सोचा करते।”
“नहीं तो क्या करूँ? जिन बेड़ियों को तुम लोग मर्यादा के नाम पर मेरे पैरों में डालना चाहते हो उन्हें मैं स्वीकार कर लूँ? एक भले व्यक्ति से मदद लेना इसलिए छोड़ दूँ क्योंकि मैं सयानी हो गई हूँ? क्या किया उन्होंने आज तक? क्या अपराध है उनका या मेरा? वह खुद तो आए नहीं थे। उन्हें बुलाया गया था। अब उन्हें अपमानित करने का किसी को क्या अधिकार है?”
“बेटी लोग कहने लगे थे तुम मास्टर जी से शादी क्यों न कर लो।”
“माँ अगर कर भी लेती तो हर्ज क्या था?”
“बेटी वह ब्राह्मण कुल के नहीं हैं।”
“कोई फैसला लेने से पहले मुझसे पूछा तो होता।”
“क्या तू कहती कि तू उनसे शादी करेगी।”
“हाँ अगर मेरा निश्चय होता तो अवश्य कहती। अंजाम जो भी होता।”
“तो क्या शादी-वादी का मामला नहीं था?”
“यह तो तुम ही जानो।”
“तो वह निष्प्रयोजन पिछले इतने वर्षों से नियमित रूप से तुम्हें पढ़ाने क्यों आते रहे?”
“वाह माँ, एक तो उन्होंने बाबा का आदेश स्वीकार किया और अब उन्हीं को दोष दे रही हो। माँ मास्टर जी के बड़प्पन और उनकी सहृदयता को आज के युग में लोग नहीं पा सकते। उन संत जैसे व्यक्ति को इसप्रकार शंकाकुल दृष्टि से देखना, अपराध ही नहीं पाप भी है।”
“तो तू कहना क्या चाहती है?”
“सच बता दूँ?”
“बता।”
“मास्टर जी अब इस घर में नहीं आएँगे। मैं खुद उनसे मिलने जाऊँगी। मैं एम.ए. भी करूँगी। आप चाहें तो मुझे घर से निकाला दे दें।”
“अर्चना होश में है?”
“हाँ माँ।”
“पापा तुझे काट डालेंगे” कहते-कहते माँ कमरे से बाहर चली गई थी।”

दूसरे दिन अर्चना मिसिर जी के पास गई। “बाबा आशीर्वाद दीजिए। मैं कॉलेज में दाखिला लेने जा रही हूँ।”
“तू पढ़ेगी जरूर।”
“हाँ बाबा पढूँगी भी, प्रोफेसर भी बनूँगी। आपके सम्मान में चार चाँद भी लगाऊँगी। समाज क्या कहता है, मैंने अपने कान बंद कर लिए हैं। बाबा आप भी मुझ पर भरोसा कीजिए। मैं कहीं भी आपको नीचा नहीं देखने दूँगी।”
“जा बेटी। अगर तेरी यही जिद्द है तो जैसा चाह, कर।”
“नहीं कैसे मनचाहा करेगी?” पापा लगभग खींचते हुए बाहर निकल आए।
“बेटा ठहरो। आक्रोश में मत आओ। मैं देख लूँगा। जाओ बेटी जाओ।” मिसिर जी ने अपने बेटे से कहा।
अर्चना ने बाबा के पैर छुए और महाविद्यालय के लिए चल पड़ी। अभी आधा रास्ता ही गई होगी कि उसका मन भर आया। बिना मास्टर जी के दाखिले का कोई अर्थ नहीं। वह घर के लिए लौट पड़ी। तभी देखा अविनाश सामने से हाथ में पुस्तक लिए अपने विद्यालय के लिए जा रहा था।
“सर जी।”
“अरे अर्चना, कहाँ से आ रही हो?”
“कॉलेज से।”
“दाखिला ले लिया?”
“लेने गई थी।”
“मिल गया?”
“नहीं आप साथ नहीं थे, सो हम नहीं गए। बीच से ही लौट आए।”
“अरे पगली।”
“सर अभी तो पगली नहीं हूँ, भले ही कुछ दिन बाद हो जाऊँ तो कह नहीं सकती।”
“सर चलेंगे कॉलेज तक?”
“क्यों अकेले नहीं जा सकती?”
“नहीं। यदि आप हमारे साथ चलेंगे तो कोई कुछ भी कहेगा, हम जवाब दे लेंगे। आपका कोई दोष नहीं होगा।”
“कहाँ बहक गई हो?”
“कहीं नहीं। आप बताइए चलेंगे दाखिले के लिए?”
असमंजस के कुहासे को छाँटते हुए अविनाश ने कहा, “चलो।”
“और सर आज शाम को घर आइए।”
“अर्चना बाबा कुछ कह रहे थे।”
“हाँ मुझे सब मालूम है। मेरी गुलामी का अध्याय शुरू हो गया है। संस्कृति, उसूलों और मर्यादाओं के बीच प्रत्येक सामान्य परिवार की लड़की की भाँति हमारा भी गला घोट देने की साजिश हो गई है। समाज और परिवार की मर्यादा को बचाए रखने की सारी जिम्मेदारी मासूम लड़कियों और औरतों पर ही तो होती है।”
“अर्चना विद्रोही हो गई हो?”
“सर जब पुरुष मात खाता है तो वह या तो खुद को खत्म कर लेता है या अपने प्रतिद्वंदी को खत्म कर देता है और समझता है कि उसने समाज को हरा दिया। उसूलों की होली जला दी। लेकिन जब नारी हारती है तो वह विद्रोही बन जाती है। विद्रोही बनकर और अपनी जान पर खेलकर समाज से मोर्चा लेती है। अन्यथा घुट-घुट कर मर जाती है। वह कभी व्यक्ति विशेष से अपनी हार का बदला लेना नहीं जानती।”
“चिंतन गंभीर है।”
“छोड़िए कॉलेज आ गया।”
अविनाश प्राचार्य कार्यालय के बाहर खड़ा रहा। अर्चना ने एडमिशन फॉर्म भरकर जमा कर दिया। उसके बाद दोनों कॉलेज की कैंटीन चले गए।
“अर्चू तुम्हें बाबा की बात मान लेनी चाहिए।”
“सर मैं बाबा की बात कब नहीं मानती। लेकिन यदि बाबा हमें बीती सदी में ले जाना चाहे तो वह हमें स्वीकार नहीं होगा। वह हमारे विचारों को समझने का प्रयास क्यों नहीं करते? वह हमें अपने दकियानूसी चश्मे के पीछे से देखना और निर्देशित करना क्यों चाहते हैं?”
“अर्चू बड़े-बुजुर्गों को इसी में सुख मिलता है और उनके सुख में ही हमारा कल्याण छिपा रहता है।”
“एक बात कहूँ सर, लगता है हर उम्र में पुरुष नारी के प्रति दकियानूसी विचार रखता है। केवल अपने संबंध में वह आधुनिक हो जाना चाहता है।”
“यानी मैं भी दकियानूसी हूँ?”
“हाँ और क्या? पढ़ने-लिखने के बाद भी दिमाग की खिड़कियाँ न खुले तो पढ़ाई का क्या लाभ?”
“अच्छा विषय गहरा है, अंतहीन है, समय अधिक हो गया है, घर चलो।”
“सर घर तो चलना ही है। लेकिन हम सोच रहे हैं कि आपके बिना हमारी पढ़ाई कैसे होगी?”
“अर्चना एक कमजोर लड़की की तरह बात मत किया करो। भला अब मेरी क्या जरूरत? वैसे भी अंग्रेजी साहित्य के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम।”
“सर एक बात बताइए, आपने हमें विज्ञान से लेकर हिंदी साहित्य तक पढ़ाया है। फिर भला आप अंग्रेजी साहित्य क्यों नहीं पढ़ा सकेंगे?”
“यह तो मैं और तुम ही जानते हैं कि मैंने क्या पढ़ाया है और तुमने क्या पढ़ा है?”
“लेकिन हम तो हर विषय में अव्वल रहे। बस ऐसे ही दो वर्ष और पढ़ा दीजिए।”
“मैंने मना कब किया है?”
“हाँ सो तो है, लेकिन समस्या तो यह है कि आप हमें पढ़ाएँगे कैसे?”
“यह तो तुम ही जानो।”
“सर एक आइडिया है। अगर आप हायर स्टडीज़ के लिए मेरे कॉलेज के पुस्तकालय का ही प्रयोग करें तो कैसा रहेगा?”
“पढ़ाई तो यहाँ हो सकती है। पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, किंतु विद्यालय पुस्तकालय का प्रयोग गैर छात्र तो नहीं कर सकते।”
“इसके लिए एक काम कीजिए सर। आप भी यहाँ से किसी दूसरे विषय में एम.ए. कर लीजिए। बड़ा मजा आएगा। हम दोनों साथ पढ़ेंगे।”
“हाँ तुम अव्वल पास होना और मैं पास भी न हो पाऊँ।”
“उसमें तो और भी मजा आ जाएगा। अब हम कुछ नहीं जानते। आप भी आज ही दाखिला ले लीजिए। कौन आपको इस एम.ए. की डिग्री का उपयोग करना है।”
अविनाश एकटक अर्चना को देखता रह गया। कुछ समझने का प्रयास कर रहा था। लेकिन वह उसके प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर सका। उसने भी एम.ए. अंग्रेजी में दाखिला ले लिया था।

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