[avatar user=”mousam rajput” size=”98″ align=”center”]Mousam Rajput[/avatar]
कितना बड़ा छल है स्वयं से
कामरेड!
कि मेरे पास तुम्हारा पता होते हुए भी
मैं तुम्हारी खोज में हूं वर्षों से,
कितनी बड़ी वितृष्णा है कि
तुम्हें पाकर भी
वैसे स्वीकार नहीं कर पा रहा
जैसे कभी भूखे चूल्हे से उठते धुएं सी रात में
जलते आंसुओ ने कहा था,
तुम्हारा होने का महत्व
मुझसे न पूछो
लाल सलाम की भीतरी गुफाओं में छिपे
मर जाने के युवा जुनून की कीमत
मैंने जिसके स्वर के लिए रातें जागी हैं
अंतःकरण के पृष्ठ पर छपे उलझे हस्ताक्षरों को रटने में
आंखो में गिरे नए स्वप्नों के दीप में
गीत के अश्रु घृत सजाने में,
अब उसी के शब्दकोष में
शून्य सूनेपन की यह धारा
नितांत मेरे लिए
तुम्हारा मौन इतना प्रभावी होगा
कामरेड!
सोचा होता तो
तुम्हारे ही पथ का अनुयायी होता मैं
अपने स्वप्नों के कुंद जाल में
एक सुख का अन्वेषी…
सुख कि जिसको मैं
एक धूल सनी हवा का झोंका समझता हूं
सुख कि जिसकी नौका पर मैंने
कदम नहीं रखा, किन्ही की यात्रा के निर्विघ्न हेतु
मैं तैरता हूं या कि डूबता हूं
तुम्हारा मौन जाने क्यों अथाह होता जाता है नितांत मेरे लिए
कामरेड, नितांत मेरे लिए।।।
तुम्हारे पाठ्यक्रम का अर्थशास्त्र इतना नीरस उपेक्षापूर्ण है
तो मैं
काम और मोक्ष भाव से भी मुक्ति चाहता हूं
एक तुम्हारे प्रश्न को हल करता हुआ
एक कभी न हंस बोल सुन पाने वाली मुक्ति
नितांत मेरे लिए।।।
पागल की भांति सब प्रश्नों को
तोड़ती मुक्ति
स्कूल के छज्जे पर चढ़कर
खुद को निर्दोष साबित करने वाली मूक मुक्ति
नितांत…