ये मुस्तकिल नहीं खुश्बूएं जो तेरे बदन में लगी हैं
उस गर्द का क्या होगा जो तेरे जहन में लगी है
खबर नहीं के हुकूमत काट ले गई पतंग ए असबाब
सारी कौमें अभी धागे की उलझन में लगी हैं
अभी तक महकती है ख़ाक रोशन है मकबरा मेरा
अब तक तेरे हाथ की मेहंदी मेरे कफन में लगी है
तेरी प्यास को तवज्जो देना न देना आवाम के हक़ में है
पहले बुझा आग जो तेरे हाथों वतन में लगी है
=> मौसम राजपूत