उत्साह

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उत्साह, सुख, समृद्धि, साहस, और उपलब्धियों का अविरल स्रोत है। ‘अनिर्वेदः श्रियो मूलमनिर्वेदः।’ उत्साह ही श्री का मूल कारण है। उत्साह ही परम सुख है। उत्साह सहस की संजीवनी है। “उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु।” जिनके हृदय में उत्साह होता है वह पुरुष कठिन से कठिन कार्य आ पड़ने पर भी हिम्मत नहीं हारते। उत्साह की शक्ति अपरम्पार। वह बहुत बलवान होता है। उससे बढ़कर कोई बल नहीं होता। उत्साह ही सब सम्पदाओं का मूल है।

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युतसाहात परं बलम उसाहारम्भमात्रेण जायन्ते सर्वसम्पद

उत्साह में निहित यही वह बल एवं शक्ति है जो व्यक्तियों को छोटी से बड़ी उपलब्धि प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। एमर्सन के अनुसार बिना उत्साह के कोई महान उपलब्धि कभी न हुई है। न हो सकती है। प्रत्येक छोटी-बड़ी उपलब्धि के पीछे उत्साह का योगदान होता है

व्यक्ति को सफलता अथवा असफलता के किसी भी दौर में हॄदय में निहित उत्साह भाव को त्यागना नहीं चाहिए। मन में यदि उत्साह बना रहेगा तो असफलताओं के काले बादलों को छटते समय नहीं लगेगा। उत्साह न केवल व्यक्ति को आगे बढ़ने की शक्ति देता है अथवा दुष्कर कार्यों को करने का साहस देता है अपितु वह नई सोच और नई दिशा देता है। समय और परिस्थितियों से पराजित व्यक्ति के पास यदि उत्साह का संचित धन है तो वह नई योजनाओं को जन्म दे सकता है । उन पर अमल कर सकता है। पुनः सफलता के पायदानों पर चढ़ सकता है।

इसके विपरीत उत्साहहीन व्यक्ति न तो पराजय से जय को प्राय कर पाता है , न जय होने पर भी, वह उत्साह के अभाव में सुख और आनंद का भोग कर पाता है। सफलता, सुख, ओर आनंद की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपने मन में उत्साह को घर करके रखना आवश्यक है।

उत्साह कभी बूढ़ा नही होता। उसकी कोई उम्र नहीं होती। वह नवजात शिशु से लेकर मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति के मन में भी हिलोरे मरता रहता है। लेकिन व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता की उदासीनता के चलने अपने भीतर के उत्साह को बौना बना देता है, उसे बूढ़ा कर देता है। उसे उम्र से दायरे में बांध देता है। हताशा के स्वर अलापने लगता है। अपनी उम्र को लेकर उत्साह के ह्रास के कारणों को खोजने लगता है। अपनी असफलताओं का सेहरा ‘उत्साह’ की कमी पर बाँधकर स्वयं को उत्तरदायित्व से मुक्त करने का प्रयास करता है। यह उचित नहीं है क्योंकि उत्साह स्वयं में बूढ़ा नहीं होता । उसे बूढ़ा बना देता है, व्यक्ति का मन और उसकी सोच । आपेक्षित तो यह है कि शारीरिक रूप से बूढ़े व्यक्ति को कभी अपने चेहरे की झुर्रियों को उत्साह पर नहीं पड़ने देना चाहिए। उत्साह को कभी अपनी उम्र का अहसास नहीं दिलाना चाहिए। उसे उम्र की दहलीज से कोसों दूर रखना चाहिए और न उसे दागदार होने देना चाहिए। शायर ‘शारब’ की तरह एक ही विचार होना चाहिए-

कोई बुलंदी हो कोई पस्ती
ब हर कदम एक रक्स मस्ती
रुकूँ तो रुक जाए नब्ज़ेहस्ती
चलूँ तो चलने लगे जमाना

उत्साह इतना हो कि सियाह रातों को उजाले में बदलने की आवश्यकता पड़े तो चिराग नहीं दिल की मशाल का जलाने का हौसला हो।

सियाह रात है यह, मशालें दिलों की जलाओ
कहीं चिराग जलाने से काम चलता है।

ऐसे ही व्यक्ति जो असफलताओं के अंधेरे में मन के उत्साह को मरने नहीं देते अपितु उसके सम्बल को लेकर आगे बढ़ते हैं, सफलता श्री को प्राप्त करते हैं।

उत्साह के दो ही दुश्मन हैं। पहला दुश्मन है चित्त की अधीरता। दूसरा दुश्मन है असमर्थता पुराण। परेशानी कितनी बड़ी क्यों न हो? कष्ट कितना भी सघन क्यों न हो ? रात कितनी भी स्याह क्यों न हो? व्यक्ति को मन की अधीरता पर लगाम लगाई रखना जरूरी होता है। समस्याओं का समाधान शांत चित्त से होता है। मन की अधीरता की तीव्रता से नहीं। अधीरता विवेक की दुश्मन है वह व्यक्ति को विवेकहीन कर देती है। चित्त की स्थिरता सफलताओं की सहचरी है। स्थिर चित्त समस्याओं के समाधान का आधार है।

कष्टों में अपनी असमर्थताओं की गिनती करना समस्याओं को मुख फैलाने का अवसर देने के समान है। विप्पति के समय व्यक्ति को ढूंढ-ढूंढकर अपनी सामर्थ्य को उत्साह के साथ एकत्र करना चाहिए। सामर्थ्यों की एकत्रित शक्ति विप्पत्तियों का सामना करने में सबसे सशक्त सम्बल सिद्ध होगा।

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