बचपन का दौर

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वो नन्हें से पाँव, वो आँचल की छाँव।
वो कागज की नाँव, शहर हो या गाँव।।
नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।
वो बिरिया के काँटे, फिर मम्मी के चांटे।
रोने पे कम्पट थे संतरे के बाँटे।।
नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।
वो पेड़ों पे चढ़ना, वो तितली पकड़ना।
ये कम है वो ज्यादा पे लड़ना झगड़ना।।
वो सावन के झूले नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।।
सड़कों पे सूनी वो पहिया चलाना।
कड़ी धूप में हंस के खुद को जलाना।।
नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।।
न कपड़े नए थे, न जूतों का दुख था।
फिर भी चमकती आँखों में सुख था।।
थे पापा जो साईकिल पे हमको घुमाते।
नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।।
वो मासूम आँखें, और चेहरा वो भोला।
पापा के आने पे जब टटोला था झोला।।
नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।।
न सुख-दुख की थी परवाह, बस खेल का जुनून था।
वो अलग ही एक दौर था, जब सुकून ही सुकून था।।
वो बचपन की यादें, नहीं आज भूले, नहीं आज भूले।।

  • रजनी वर्मा

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