सबसे दूर जाना है, फिर नहीं पास आना है..
मतलबी दुनियां में प्यार और रिश्ते सब बिक गए हैं,
कुछ भी कर लो, पैसों के आगे सब झुक गए हैं।
रिश्तों को जाल से निकालते निकालते खुद फंस गए,
पैसों के आगे सारे रिश्ते भी धूमिल पड़ गए।
आज एक सवाल मन में कौंधता है..
क्या अपनापन, प्यार, और साथ ये सब धोखा है..?
इत्तेफ़ाक़ होने लगा है अब सिक्कों की खनक से,
झूठ, धोखे और दिखावे की अकड़ से।
मासूमियत का जामा पहनकर खेलना आता नहीं,
अंतर्मन दूषित करके रूप धरना मुझे आता नहीं।
अहम् और वहम् की भूलभुलैया में फंसती जा रही हूँ।
किसे समझाऊँ, और आखिर क्या..?
सवेंदनाओं की स्याही से बस कोरे पन्ने भरती जा रही हूँ।
नहीं पता कहाँ जा रहीं हूँ, कहाँ जाउँगी,
इतना तो यकीं है..
आख़िर ख़ुद से नहीं छली जाऊँगी,
ख़ुद से धोख़ा नहीं खाऊँगी..
कभी नहीं.. !!!