नारी

1853

“नारी “

नारी तुम जग की जननी

प्रेम माधुरी उन्मुक्त उर्मिला

चंचला दामिनी छुई मुई

तुमसे जीवन का पुष्प खिला।

तुम मेघों का प्रथम गीत

नर का स्वप्न

मन का संगीत।

तुम वाम अंंग में बसती नर के

उसका साथ निभाने को

अखंड ज्योति सी प्रतिपल जलती

प्रेम पुरुष का पाने को

प्रेमातुर हो सहज भाव से

तुम बंध जाती बंधन में

आलोको का लोक समेटे

झुकती नर के वंदन में।

हा! नारी तुम मासूम इला

तुम्हें न जग से न्याय मिला

समाज सदा ही घेर तुम्हें

तुम पर प्रश्न उठाता है

क्यों कठिन त्याग और साहस को

संसार भूल यूंं जाता है?

 हे नारी,

गैरों से आशा छोड़ो

आज नई हुंकार भरो

त्यागो अपने हर भय को

रणचंडी सा रूप धरो

नारी तुम आधार जगत का

अंत भी तुममे रमता है

तुम दुर्गा, तुम काली हो

युग परिवर्तन की तुममे क्षमता है।।

                                मोहिनी तिवारी

                                   

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